Thursday, November 30, 2023
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बात सिर्फ 50 रुपये की नहीं है, वो आपकी इंसानियत छीन लेना चाहते हैं V.o.H News

ट्रेन में नीचे की सीट आरक्षित करवाने पर 50 रुपए ज्यादा वसूलने के प्रस्ताव पर विचार चल रहा है| इस सन्दर्भ में मुझे Michael J. Sandel की किताब ‘What Money Can’t Buy? The Moral Limits of Markets का ध्यान आया। हार्वड के प्रसिद्ध प्रोफेसर Michael J. Sandel, ने 2012 की अपनी इस किताब में अमेरिकी समाज से अनेक उदाहरण दिए हैं जहाँ धीरे-धीरे ‘पहले आओ, पहले पाओ’ के सिद्धांत को दरकिनार करके बाज़ार के नियम लागू किए जा रहे हैं।

 

 

जहाँ ‘पहले आओ, पहले पाओ’ का सिद्धांत लागू होता है वहाँ सामजिक-आर्थिक विषमता कुछ समय के लिए स्थगित हो जाती है। ‘जिसको ज्यादा जरूरत होगी वह ज्यादा कीमत देगा इसलिए चीज उसकी’ यह बाज़ार का सिद्धांत है। दरअसल बाज़ार के तर्क इतने पारदर्शी होते हैं शक-ओ-शुबहा की कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ते।

 

मैंने Michael J. Sandel की किताब में दिए कुछ उदाहरणों के तर्ज पर कुछ भारतीय उदाहरण अपने एक लेख के लिए गढ़े थे। एक उदाहरण पर गौर कीजिए:

“हम सब जानते हैं कि चुनाव आयोग हमारे देश की एक महत्त्वपूर्ण संस्था है जो समय-समय पर केंद्र और राज्यों में सरकार गठन के लिए चुनाव करवाती है। यह संस्था सरकारी खर्चे से चलती है अर्थात इस देश के करदाता जो कर चुकाते हैं उसका एक हिस्सा इस संस्था को प्राप्त होता है। सरकार पर यह दवाब है कि वह अपने तमाम ऐसे अनुत्पादक खर्चों को कम करे ताकि वह अपनी आमदनी को उत्पादक कार्यों में लगा सके। इस तर्क से देखें तो चुनाव आयोग अपने खर्चे के छोटे से हिस्से का भी इंतजाम स्वंय कर ले तो सरकार के अनुत्पादक खर्चे में कमी आएगी।

 

अब फ़र्ज कीजिए कि चुनाव आयोग का एक काबिल सदस्य एक ऐसी तरकीब सोचता है जिससे चुनाव आयोग को अपने तौर पर आय का एक स्रोत मिल जाता है| पिछले कई चुनावों के अध्ययन के आधार पर वह सदस्य पाता है कि दक्षिणी मुम्बई, दक्षिणी दिल्ली आदि देश के कई समृद्ध इलाके हैं जहाँ मतदान का प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। एक सवें में यह बात सामने आती है कि इस इलाके के बहुत से व्यस्त पेशेवर और व्यवसायी मतदान के लिए पंक्ति में खड़े होकर अपनी बारी का इन्तजार नहीं करना चाहते। अगर उनका घंटा, दो घंटा भी इसमें ज़ाया होगा तो उनके धंधे का अच्छा ख़ासा नुकसान होगा, इसलिए आमतौर पर यह तबका वोट देने नहीं आता है।

 

चुनाव आयोग का वह सदस्य प्रस्ताव लाता है कि इन मतदाताओं से कुछ फीस लेकर इन्हें यह सुविधा दी जाए कि वे बगैर लाइन में खड़े हुए वोट डाल सकें। इनके लिए एक ई.वी.एम मशीन अलग से रखा जाए जहाँ निःशुल्क वोट देने वाले मतदाता वोट नहीं कर सकें। शुल्क देकर पंक्तिबद्ध होने से बचने के इच्छुक मतदाता ऑनलाइन भुगतान करें और साफ्टवेयर उन्हें वोटिंग का निर्धारित समय आबंटित करे। चुनाव आयोग का उक्त सदस्य एक और प्रीमियम सेवा प्रस्तावित करता है जिसमें चुनाव अधिकारियों की एक मोबाइल टीम हो जो मतदाताओं के घर जाकर उनसे वोट डलवा ले।

 

जाहिर है कि इस प्रीमियम सेवा के लिए निर्धारित शुल्क अधिक होगा। इन वैल्यू एडेड सेवाओं के बारे में जब संभावित ग्राहक-मतदाताओं से बात की जाती है तो वे इस प्रस्ताव को लेकर खासे उत्साहित दिखते हैं। एक अनुमान के अनुसार अगर चुनाव आयोग अगले दस वर्षों में इन योजनाओं को ठीक से हिन्दुस्तान के सभी शहरों में लागू कर पाए तो वह अपने खर्च का दस प्रतिशत इन तरकीबों से जुटा लेगा।

 

फ़र्ज कीजिए कि बाज़ार के इन पुख्ता पारदर्शी तर्कों के साथ इन योजनाओं को चुनाव-आयोग का कोई सदस्य प्रस्तावित करे तो इस देश में कैसी प्रतिक्रिया होगी। मेरा यह मानने को मन कर रहा है कि गुरूचरण दास, सुरजीत भल्ला, जगदीश भगवती और अरविन्द पनगढ़िया भी इन प्रस्तावों को समर्थन नहीं देंगे और इकॉनोमिक टाइम्स इसके विरुद्ध सम्पादकीय जरूर लिखेगा। जिन काल्पनिक ग्राहक-मतदाताओं की बात मैंने ऊपर की है वह भी इस प्रस्ताव को समर्थन देने में कुछ तो झेंपेगा।

 

खैर मनाइए कि कम से कम पाँच साल में होने वाले इस लोकतांत्रिक उत्सव को हम एक नागरिक कर्म के रूप में अबतक देखते आए हैं और इसमें बाज़ार का प्रवेश नहीं चाहते हैं। पंक्ति में खड़े होकर और तर्जनी पर स्याही लगवाकर कम से कम पाँच साल में एक बार यह सन्देश देना चाहते हैं कि इस देश के सभी नागरिक सामान हैं।” 

 

(हंस, जनवरी, 2015 में प्रकाशित मेरे लेख– नागरिक जीवन से रेलवे की विदाई का शोकगीत’ से)

इसलिए भाइयों-बहनों, मामला महज़ 50 रुपए किराया बढ़ जाने का नहीं है। मामला यह है कि हमारी नागरिकता जिन नैतिक-वैचारिक आधारों पर टिकी है उन्हें ही धीरे-धीरे खोखला किया जा रहा है।

 

Michael J. Sandel की किताब के कुछ पृष्ठ उपलब्ध ऑनलाइन उपलब्ध हैं।

 

(लेखक पत्रकार हैं।)

संपादन- भवेंद्र प्रकाश

साभार:  नेशनल दस्तक

 

 

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