“प्रिय मित्रों,
आप इसे मेरा विदाई संदेश मान सकते हैं।
19 दिसंबर,2011 को मैं इस संस्थान का सदस्य बना। जब पहली बार यहां आया था तो संस्थान वाला कोई तत्व दिखा नहीं था। अस्त-व्यस्त, बिखरा-बिखरा सा।इन सात साल में संस्थान ने दिन दूनी रात चौगुनी तरक़्क़ी की। हम, आप सबने मिलकर अपने जीवन का स्वर्णिम काल यहां गुज़ारा है।
मेरे लिए ये जगह घर जैसी ज़्यादा थी। तमाम साथी परिवार जैसे हो गए। हालांकि मुझे कार्यालयी शिष्टाचार बिगाड़ने का दोषी माना जा सकता है लेकिन सर और मैम वाली कार्यसंस्कॄति मेरे स्वभाव से मेल नहीं खाती। आप मेरे भाई, बहन, संगी, साथी और पारिवारिक अभिभावक जैसे रहे। तमाम लोगों से बहुत सहयोग मिला। आपमें से अधिकांश के साथ ये संबंध आगे भी जारी रहेंगे। जिनके दिल छोटे हैं उनसे संभवतः ये अंतिम संबोधन है। मुझे गर्व है कि मुझे आप जैसे सहयोगी मिले। मुझे स्वंय पर भी गर्व है कि मैने कभी अपने काम और अपने सिद्धांतों से किसी भी हाल में समझौता नहीं किया। जीवन अनवरत है और दुनिया गोल है। हम सब आगे बढ़ते रहें और आपस में संपर्क बनाए रहें यही कामना है। जाते समय पिछले सात साल का लेखा जोखा करना ज़रूरी है। आपमें से कई के लिए लंबा भाषण टाइप ज्ञान बोझिल हो सकता है मगर आपने मुझे बरसों तक झेला है इसलिए ये भी पढ़ जाएंगे।
मुझे अपने कार्य करने के तरीक़े और प्रोफेशनल एथिक्स पर कभी शक नहीं रहा। कुछ चीज़ों में मैं आपके लिए परेशानी का कारण भी रहा हूं। आप लोगों ने बहुत समझाया मगर मैं चापलूसी और समय के साथ बदलना नहीं सीख पाया। अपने आप से समझौता करना और हवा के साथ बह जाना मैनें नहीं सीखा। आपने बहुत लोगों को लेफ्ट से राइट और राइट से लेफ्ट करते देखा होगा मगर मुझे स्वंय पर गर्व है कि मैने ये नहीं किया। ये मेरे डीएनए में नहीं है। अगर समझौता करते तो 1857 में मेरे पूजनीय दादा के दादाजी को अपनी जान न गंवानी पड़ती। 1946 में दादा अंग्रेज़ों से समझौता कर लेते और बाग़ी न होते तो शायद ज़मींदारी कुछ दिन और चल जाती। 1975-77 में चाचा और पिताजी सरकार की ज़्यादती के ख़िलाफ चुप रहते तो मीसा के तहत जेल न जाते। पिताजी ईमानदार न होते अपनी जान से न जाते और अभी हमारे साथ होते। आप यक़ीन रखिए आप मुझसे इस मामले में कभी निराश नहीं होंगे। ये बताने की बातें नहीं हैं मगर कई बार लिखना भी पड़ जाता है। ये परम सत्य है कि सत्ता बदलती हैं लेकिन संस्थान बने रहते हैं। सत्ता अस्थाई है लेकिन पत्रकार का चरित्र स्थाई होना चाहिए। मैं जिन मुद्दों पर संस्थान से विदा हो रहा हूं वो मेरे लिए लाइफटाइम अचीवमेंट हैं। मैं जीवन भर इन्हें मेडल की तरह संजो कर रखूंगा। मैं गर्व से कह सकूंगा कि मैंने अपनी मातृभाषा और साम्प्रदायिकता विरोधी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। सरकारें आती जाती रहेंगी, सत्ता से जुड़े लोग आते जाते रहेंगे। इसलिए तात्कालिक समझौते का अर्थ हर दो चार वर्ष बाद समझौते के जाल मे उलझना होता। मुझे गर्व है कि मैंने पैसे के लिए अंतरात्मा की हत्या नहीं की। मैं आज से स्वतंत्र हूं और इस स्वतंत्रता का आनंद लेना चाहता है। समय पक्ष में रहा तो फिर यक़ीनन साथ आएंगे। इसमें कुछ शब्द उर्दू के भी इस्तेमाल कर लिए हैं उसके लिए माफी। अंग्रेज़ी वालों से दोहरी माफी क्योंकि उनके लिए डिक्शनरी का प्रबंध नही कर पाया। वो ऐसे ही कूड़ा शोधन करलें। बाक़ी निजी तौर पर उन सबसे माफी जो किसी न किसी कारण मेरे कोप का भाजन बने। तमाम साथियों को उज्वल भविष्य की कामना के साथ विदा।
सस्नेह
सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा”